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Sunday 16 November 2014

'हम्मिंग बर्ड'--- काव्य- संग्रह(मुकेश कुमार सिन्हा)




                 आज ही, 'फेसबुक' पर बहुतेरों के चहेते मुकेश कुमार सिन्हा जी की 'हम्मिंग बर्ड' मिली. पुस्तक का कलेवर ही मुग्ध करनेवाला है; और 'हिन्द-युग्म' ने यहाँ भी अपनी साफ़गोई दर्ज़ की है. अभी फिर हम किताब के भीतर भी चले चलेंगे.
मनोजगत को सूक्ष्मता से विश्लेषित करती कई पूर्ण रचनाओं का समृद्ध और सशक्त संसार है यह पुस्तक.
                एक आम आदमी शब्दों को निचोड़कर जब मानवीय मूल्यों का चित्रण शब्दों से ही करना चाहता है, मेरी समझ में तभी 'हमिंग बर्ड' जैसी क़िताब का आगमन तय होता है. मुकेश जी ने प्रायः रचनाओं के साथ न्याय करना चाहा है, जिससे यह एक पठनीय सामग्री बन गयी है.
                 सच तो यह है कि कुछ कविताओं का आस्वादन करते- करते ऐसा जान पड़ता है कि हम उस परिदृश्य का हिस्सा बन गए हैं जहाँ यह शब्द- चित्रण चल रहा है, और यही इन कविताओं की निर्विवाद सार्थकता है.
एक बानगी 'महीने की पहली तारीख़' में है, जिससे शायद ही कोई मध्यवर्ग अछूता हो...

''हर महीने
का हर पहला दिन
दिखता है एक साथ
रहती है उम्मीद
बदलेगा दिन
बदलेगा समय
दोपहर की धूप हो जाएगी नरम
ठंडी गुनगुनाती हो पाएगी शाम...''

                ठीक ऐसे ही, जब आगे 'उदगार' का पाठ होता है, रिश्तों में अपनी धाक जमाने वाले एहसासों का ताना- बाना दिखता है कि जो सात फेरों में जज़्ब वायदे हैं, कहाँ उनके आगे कोई उछृंखल भाव अपनी पैठ कभी स्थायित्व के साथ कर पाता है...

''याद नहीं  फेरों के समय लिए गए वायदे
पर फिर भी हूँ मैं उसका...''

                 मुकेश जी की कविताएँ आम आदमी की ज़िन्दगी से ज़्यादा बातें करती हैं, और उन्हीं वार्तालापों में अपनी सटीक और सार्थक उपस्थिति बिना किसी अवरोध के जड़ती चलती है. आपकी कविताओं का जो सबसे सफल पहलू मैं समझता हूँ, वो एक मध्यम- वर्ग का शोषित और स्वयं से भरसक ज़्यादा दोहन किए हुए एहसासों का खाका है, जो बड़े ही चालू शब्दों से सजाया गया है.
                 इसी कड़ी में एक कविता आती है, ''पगडण्डी'' जो गोया सच से स्वयं का साक्षात्कार- सा है, जिससे शायद ही कोई  मनुज अपने जीवनकाल में कभी बचा हो. बानगी तो देखिए---

''कोई नहीं
नहीं हो तुम मेरे साथ
फिर भी
चलता जा रहा हूँ
पगडंडियों पर
अंतहीन यात्रा पर

कभी तुम्हारा मौन
तो, तुम्हारे साथ का कोलाहल
जिसमें होता था
सुर व संगीत
कर पाता हूँ, अभी भी अनुभव
चलते हुए, बढ़ते हुए
तभी तो बढ़ना ही पड़ेगा...''
              
                  इन सबके अलावा, कुछ कविताओं के अंत और वो काव्य स्वयं बहुत ही निराश भी करते हैं. अगर आप संवेदना को दिनचर्या में घोलकर जियें तो यह एक अच्छी कोशिश है, मगर एहसासों के पतवार में रबड़ के टायर की मौजूदगी सालती है. मुकेश जी को कुछ कविताओं का अंत प्रभावशाली बनाना चाहिए, जहाँ वो चूक गए हैं. साथ ही, कुछ को किसी और संग्रह में तरजीह दी जानी चाहिए, ताकि आपकी बातों की गहराई चलायमान रहे; और यहाँ फिसल जाने से वो तारतम्य भी टूटा ही है. उम्मीद है, इस पर वे आगे ज़रूर ध्यान रखेंगे, और संख्या से ज़्यादा गुणवत्ता को तवज़्ज़ो देंगे...पर तब तक के लिए इस क़िताब की ख़रीद अच्छे खयालातों को बढ़ावा देना है. 

प्रसंगवश:- मार्केटिंग के ज़माने में मुकेश जी ने अपनी इस पुस्तक में इस बाज़ारू रवैय्ये को सफलतम रूप से भुनाया है, और जब पुस्तक की कीमत पर ही उसके रचनाकार की सुन्दर हस्तलिपि में 'हस्ताक्षर' जिसे दुनिया 'ऑटोग्राफ' कहती है, मिल जाए तो सुन्दर पृष्ठ सज्जा वाली इस किताब को लेने का सौदा बुरा नहीं है.
                   क़िताब से जुडी सभी शख़्सियत को शुभकामनाएँ!***

                                                        --- अमिय प्रसून मल्लिक

Refer:  ( https://www.facebook.com/photo.php?fbid=595641793873057&set=a.251477368289503.46694.100002817262196&type=1&theater )

1 comment:

मुकेश कुमार सिन्हा said...

अरे वाह, ये ब्लॉग पर भी है :)